द खजुराहो


Nikhilesh Mishra                               

               (मध्यकालीन स्थापत्य एवं मूर्तिकला)
                      --------------------------------
12 वी शताब्दी से खजुराहो मंदिरो के समूह में कुल 85 मंदिर है, जो 20 किलोमीटर वर्ग के दायरे में फैले हुए थे। इनमे से अब केवल 20 मंदिर ही बचे हुए है जो 6 किलोमीटर के दायरे में फैले हुए है। बचे हुए मंदिरो में कन्दारिया महादेव मंदिर बहोत सी इतिहासिक मूर्तियो से बना है जिनपर इतिहास की विविध घटनाओ की जानकारी भी लिखी गयी है, यह मंदिर भारतीय प्राचीन कला प्रदर्शन का सजीव उदाहरण है। बहुत से खजुराहो मंदिरो का निर्माण 950 और 1050 में ही चंदेला साम्राज्य में हुआ था। 


खजुराहो के मंदिर मुख्यतः दो धर्मो के लोगो के लिये बनाये गये है – मुख्यतः हिन्दू और जैन – इन मंदिरों में हिन्दू और जैन धर्म की परंपराओ और उनके इतिहास का वर्णन किया गया है।


खजुराहो स्मारकों का समूह राजपूत चंदेला साम्राज्य के शासनकाल में बनाया गया है। चंदेला शासन की ताकत का विस्तार होते ही उनके साम्राज्य को बुंदेलखंड का नाम दिया गया और तुरंत खजुराहो स्मारकों का निर्माणकार्य शुरू किया। खजुराहो के बहुत से मंदिर हिन्दू राजा यशोवर्मन और ढंगा के शासनकाल में बने है। यशोवर्मन की महानता को हम लक्ष्मण मंदिर में देख सकते है। विश्वनाथ मंदिर दुसरे शासक ढंगा की महानता को दर्शाता है।



लेकिन खजुराहो स्मारकों में सबसे प्रसिद्ध मंदिर कंदरिया महादेव मंदिर है जो 1017-1029 CE में गंडा राजा के शासनकाल में बना हुआ है। और इतिहासकारों के अनुसार खजुराहो स्मारकों में बहुत से मंदिर 970 से 1030 CE के समय में ही बने है।


खजुराहो मंदिर कलिंगर क्षेत्र के चंदेला साम्राज्य की राजधानी महोबा शहर से 35 मील दूर बने है। मध्यकालीन भाग में उनके साम्राज्य को जिझोती, जेजहोती, चिह-ची और जेजाकभुक्ति कहा जाता था।


पर्शियन इतिहासकार रिहन-अल-बिरूनी ने महमूद गजनी ने 1022 CE में कलिंगर पर किये आक्रमण का वर्णन किया है। उसने खजुराहो को जजहुती की राजधानी बताया। गजनी का यह धावा असफल रहा क्योकि हिन्दू राजा महमूद गजनी को फिरौती देने को भी राजी हो गये थे।


12 वी शताब्दी में खजुराहो मंदिर काफी सक्रीय थे। खजुराहो स्मारकों में बदलाव 13 वी शताब्दी में दिल्ली सल्तनत के आक्रमण के बाद हुआ, सुल्तान कुतुब-उद-दिन ऐबक ने आक्रमण कर के चंदेला साम्राज्य को छीन लिया था। इसकी एक शताब्दी के बाद ही इब्न बतुत्ता, मोरक्कन यात्री तक़रीबन 1335 से 1342 CE तक भारत रुका और उसने अपने लेखो में खजुराहो को “कजर्रा” कहते हुए कहा की।


मध्य भारतीय क्षेत्र में खजुराहो मंदिर 13 से 18 वी शताब्दी के बिच मुस्लिम शासको के नियंत्रण में थे। इस काल में बहोत से मंदिरों का अपमान कर उन्हें नष्ट भी किया गया था। उदाहरण के लिये 1495 CE में सिकंदर लोदी ने अपनी सैन्य शक्ति के बल पर खजुराहो मंदिरों का विनाश किया था। लेकिन बाद में हिन्दुओ और जैन धर्म के लोगो ने एकत्रित होकर खजुराहो मंदिर की सुरक्षा की।


लेकिन जैसे-जैसे सदियाँ बदलती गयी वैसे-वैसे वनस्पति और जंगलो का भी विकास होता गया और और खजुराहो के मंदिर भी सुरक्षित हो गये।


1830 में स्थानिक हिन्दुओ ने ब्रिटिश सर्वेक्षक टी.एस. बर्ट को मार्गदर्शित किया। लेकिन बाद में एलेग्जेंडर कन्निंघम ने बताया की खजुराहो मंदिरों का ज्यादातर उपयोग हिन्दू योगी ही करते थे और हजारो हिन्दू और जैन धर्म के लोग शिवरात्रि मनाने फरवरी और मार्च के महीने में हर साल आते थे। 1852 में मैसी ने खजुराहो मंदिरों की कलाकृति भी बनवायी।



खजुराहो मंदिरों में कलात्मक कार्य किया गया है जिनमे मंदिर के आंतरिक और बाहरी भागो पर 10% कामोत्तेजक कलाकृतिया बनायी गयी है। इनमे से कुछ मंदिरों में लंबी दीवारे बनी हुई है जिनमे छोटी लेकिन कामोत्तेजक कलाकृतिया बनी हुई है। कुछ विद्वानों का ऐसा मानना है की प्राचीन सदियों में यहाँ कामुकता का अभ्यास किया जाता था।


जबकि कुछ विद्वानों का ऐसा कहना है की कामुक कलाकृतिया हिन्दू परंपरा का ही एक भाग है और मानवी शरीर के लिये यह बहुत जरुरी है। जेम्स मैककोन्नाचि ने अपने कामसूत्र के इतिहास में खजुराहो का भी वर्णन किया है।


मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित खजुराहो का इतिहास काफी पुराना है। खजुराहो का नाम खजुराहो इसलिए पड़ा क्योंकि यहां खजूर के पेड़ों का विशाल बगीचा था। खजिरवाहिला से नाम पड़ा खजुराहो। इब्नबतूता ने इस स्थान को कजारा कहा है, तो चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपनी भाषा में इसे 'चि: चि: तौ' लिखा है। अलबरूनी ने इसे 'जेजाहुति' बताया है, जबकि संस्कृत में यह 'जेजाक भुक्ति' बोला जाता रहा है। चंद बरदाई की कविताओं में इसे 'खजूरपुर' कहा गया तथा एक समय इसे 'खजूरवाहक' नाम से भी जाना गया। लोगों का मानना था कि इस समय नगर द्वार पर लगे दो खजूर वृक्षों के कारण यह नाम पड़ा होगा, जो कालांतर में खजुराहो कहलाने लगा।


खजुराहो में वे सभी मैथुनी मूर्तियां अंकित की गई हैं, जो प्राचीनकाल का मानव उन्मुक्त होकर करता था जिसे न ईश्वर का और न धर्मों की नैतिकता का डर था। हालांकि रखरखाव के अभाव में एक ओर जहां ये मूर्तियां जहां नष्ट हो रही हैं, वहीं लगातार इन धरोहरों से मूर्तियों की चोरी की खबरें भी आती रही हैं।


अधिकतर धर्मों ने सेक्स का विरोध कर इसका तिरस्कार ही किया है जिसके चलते इसे अनैतिक और धर्मविरुद्ध कृत्य माना जाता है। धर्म, राज्य और समाज ने स्त्री और पुरुष के बीच के संपर्क को हर तरह से नियंत्रित और सीमित करने के अधिकतर प्रयास किए। इसके पीछे कई कारण थे। इस प्रतिबंध के कारण ही लोग इस पर चर्चा करने और इस पर किसी भी प्रकार की सामग्री पढ़ने, देखने आदि से कतराते हैं लेकिन दूसरों से छिपकर सभी यह कुकृत्य (?) करते हैं। समाज में बलात्कार के कारणों को ढूंढने का कोई प्रयास नहीं करता।


सेक्स न तो रहस्यपूर्ण है और न ही पशुवृत्ति। सेक्स न तो पाप से जुड़ा है और न ही पुण्य से। यह एक सामान्य कृत्य है लेकिन इस पर प्रतिबंध के कारण यह समाज के केंद्र में आ गया है। पशुओं में सेक्स प्रवृत्ति सहज और सामान्य होती है जबकि मानव ने इसे सिर पर चढ़ा रखा है। मांस, मदिरा और मैथुन में कोई दोष नहीं है, दोष है आदमी की प्रवृत्ति और अतृप्ति में। कामसुख एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है, लेकिन मनुष्य ने उसे अस्वाभाविक बना दिया है।


खजुराहो के बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कामकला के आसनों में दर्शाए गए स्त्री-पुरुषों के चेहरे पर एक अलौकिक और दैवी आनंद की आभा झलकती है। इसमें जरा भी अश्लीलता या भोंडेपन का आभास नहीं होता। ये मंदिर और इनका मूर्तिशिल्प भारतीय स्थापत्य और कला की अमूल्य धरोहर हैं। इन मंदिरों की इस भव्यता, सुंदरता और प्राचीनता को देखते हुए ही इन्हें विश्व धरोहर में शामिल किया गया है।


खजुराहों में वे सभी मैथुनी मूर्तियां अंकित की गई हैं, जो प्राचीनकाल का मानव उन्मुक्त होकर करता था जिसे न तो ईश्वर का और न ही धर्मों की नैतिकता का डर था। हालांकि इसका मूर्तिशिल्प लक्ष्मण, शिव और पार्वती को समर्पित मंदिरों का अंग है इसलिए इनके धार्मिक महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता।


अब सवाल यह उठता है कि मंदिर जैसी पवित्र जगह पर इस तरह की मैथुनी मूर्तियां क्यों बनाई गईं, क्या इसे बनाते वक्त धर्मगुरुओं ने इसका विरोध नहीं किया? क्या खजुराहो के मंदिरों का तंत्र और कामसूत्र से कोई संबंध है आखिर कौन-कौन-सी मुद्राओं की यहां पर मूर्तियां हैं...


कामसूत्र और खजुराहो: कामसूत्र में वर्णित अष्ट मैथुन का सजीव चित्रण खजुराहो के सभी मंदिरों की दीवारों पर जीवंत होना हुआ दिखाई देता है। 22 मंदिरों में से एक कंदारिया महादेव का मंदिर काम शिक्षा के लिए मशहूर है। संभवत: कंदरा के समान प्रतीत होते इसके प्रवेश द्वार के कारण इसका नाम कंदारिया महादेव पड़ा होगा।


यह खजुराहो का सबसे विशाल तथा विकसित शैली का मंदिर है। 117 फुट ऊंचा, लगभग इतना ही लंबा तथा 66 फुट चौड़ा यह मंदिर सप्तरथ शैली में बना है। हालांकि इसके चारों उपमंदिर सदियों पूर्व अपना अस्तित्व खो चुके थे। विशालतम मंदिर की बाह्य दीवारों पर कुल 646 मूर्तियां हैं तो अंदर भी 226 मूर्तियां स्थित हैं। इतनी मूर्तियां शायद अन्य किसी मंदिर में नहीं हैं।


यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। मंदिर की बनावट और अलंकरण भी अत्यंत वैभवशाली है। कंदारिया महादेव मंदिर का प्रवेश द्वार 9 शाखाओं से युक्त है, जिन पर कमल पुष्प, नृत्यमग्न अप्सराएं तथा व्याल आदि बने हैं। सरदल पर शिव की चारमुखी प्रतिमा बनी है। इसके पास ही ब्रह्मा एवं विष्णु भी विराजमान हैं। गर्भगृह में संगमरमर का विशाल शिवलिंग स्थापित है। मंडप की छतों पर भी पाषाण कला के सुंदर चित्र देखे जा सकते हैं।


इस मंदिर का निर्माण राजा विद्याधर ने मोहम्मद गजनवी को दूसरी बार परास्त करने के बाद 1065 ई. के आसपास करवाया था। बाह्य दीवारों पर सुर-सुंदरी, नर-किन्नर, देवी-देवता व प्रेमी-युगल आदि सुंदर रूपों में अंकित हैं। मध्य की दीवारों पर कुछ अनोखे मैथुन दृश्य चित्रित हैं।


एक स्थान पर ऊपर से नीचे की ओर एक क्रम में बनी 3 मूर्तियां कामसूत्र में वर्णित एक सिद्धांत की अनुकृति कही जाती हैं। इसमें मैथुन क्रिया के आरंभ में आलिंगन व चुंबन के जरिए पूर्ण उत्तेजना प्राप्त करने का महत्व दर्शाया गया है। एक अन्य दृश्य में एक पुरुष शीर्षासन की मुद्रा में 3 स्त्रियों के साथ रतिरत नजर आता है।


मतंगेश्वरखजुराहो का सबसे प्राचीन मंदिर जिसे राजा हर्षवर्मन ने 920 ई. में बनवाया था। पिरामिड शैली में बने एक ही शिखर वाले इस मंदिर की शिल्प रचना एकदम साधारण है। गर्भगृह में करीब ढाई मीटर ऊंचा और एक मीटर व्यास का एक शिवलिंग है। मंदिर परिसर में एक विशाल उद्यान में ऊंचे शिखर वाले कई मंदिर हैं। ये सभी ऊंचे चबूतरों पर बने हुए हैं।


परिसर में स्थित लक्ष्मण मंदिर को 930 ई. में राजा यशोवर्मन द्वारा बनवाया गया था। पंचायतन शैली में बने इस मंदिर के चारों कोनों पर एक-एक उपमंदिर बना है। मुख्य मंदिर के द्वार पर रथ पर सवार सूर्यदेव की सुंदर प्रतिमा है। मंदिर की बाह्य दीवारों पर सैकड़ों मूर्तियां जड़ी हैं। मूर्तियों की सुंदरता, उनकी भाव-भंगिमा को देखना अद्भुत है। मूर्तियों की श्रृंखला में 3 कतारों में प्रमुख मूर्तियां थीं। उनके अतिरिक्त कुछ कतारें छोटी मूर्तियों की थीं। मध्य में बने आलों में देव प्रतिमाएं हैं। अधिकतर मूर्तियां उस काल के जीवन और परंपराओं को दर्शाती हैं। इनमें नृत्य, संगीत, युद्ध, शिकार आदि जैसे दृश्य हैं। प्रमुख मूर्तियों में विष्णु, शिव, अग्निदेव आदि के साथ गंधर्व, सुर-सुंदरी, देवदासी, तांत्रिक, पुरोहित और मिथुन मूर्तियां हैं


एक मूर्ति में तो नायक-नायिका द्वारा एक-दूसरे को उत्तेजित करने के लिए नख-दंत का प्रयोग कामसूत्र के किसी सिद्धांत को दर्शाता रहा है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु की त्रिमुखी प्रतिमा के दर्शन होते हैं। अंदर की दीवारों पर भी मूर्तियां विद्यमान हैं। लक्ष्मण मंदिर के चबूतरे पर छोटी-छोटी मूर्तियां हैं। इनमें धर्मोपदेश, नृत्य-संगीत, शिक्षा, युद्ध के लिए प्रस्थान के दृश्यों के साथ ही कुछ दृश्य सामूहिक मैथुन के भी हैं। लक्ष्मण मंदिर के सामने 2 छोटे मंदिर हैं। इनमें एक लक्ष्मी मंदिर व दूसरा वराह मंदिर है।


वहां से आगे विश्वनाथ मंदिर है। उससे पूर्व पार्वती मंदिर भी है। यह नवनिर्मित मंदिर है। दरअसल, यहां स्थित यह मंदिर खंडित हो चुका था। 1880 के आसपास छतरपुर के महाराजा ने यह वर्तमान मंदिर बनवाकर उसमें पार्वती की प्रतिमा स्थापित करवा दी। यह मंदिर अन्य मंदिरों से भिन्न है। आगे स्थित है विश्वनाथ मंदिर, जो शिव को समर्पित है। 90 फुट ऊंचे और 45 फुट चौड़े इस मंदिर का निर्माण 1002 ई. में राजा धंगदेव द्वारा करवाया गया था। मंदिर की सीढ़ियों के आगे दो शेर और हाथी बने हैं। मंदिर में देव प्रतिमा, अष्टदिग्पाल, नाग कन्याएं व अप्सरा आदि हैं। अन्य कतारों में उस काल की समृद्धि का चित्रण राजसभा, रासलीला, विवाह और उत्सव के दृश्यों के रूप में है। इनमें वीणा वादन करती नायिका तथा पैर से कांटा निकालती अप्सरा की मूर्ति भी अद्भुत है। मुख्य आलियों में चामुंडा, वराही, वैष्णवी, कौमारी, महेश्वरी व ब्रह्माणी आदि के बाद अंत के आलिये में नटेश्वर की प्रतिमा है। गर्भगृह की दीवारों पर शिव अनेक रूपों में चित्रित हैं तथा गर्भगृह में शिवलिंग के दर्शन होते हैं। प्रमुख मंदिर के सामने बड़ा-सा नंदी मंडप है। 12 खंभों पर टिके चौकोर मंडप में शिव के वाहन नंदी की 6 फुट ऊंची प्रतिमा है।


विश्वनाथ मंदिर के आगे चित्रगुप्त मंदिर सूर्यदेव को समर्पित है। इसका निर्माण राजा गंडदेव द्वारा 1025 ई. के लगभग करवाया गया था। मंदिर की दीवारों पर अन्य मूर्तियों के मध्य उमा-महेश्वर, लक्ष्मी-नारायण और विष्णु के विराट रूप में मूर्तियां भी हैं। जनजीवन की मूर्तियों में पाषाण ले जाते श्रमिकों की मूर्तियां मंदिर निर्माण के दौर को दर्शाती हैं। मुख्य प्रतिमाओं के मध्य व्याल व शार्दूल नामक पशुओं की प्रतिमाएं हैं, जो हर मंदिर पर बनी हैं।


चित्रगुप्त मंदिर की दीवारों पर नायक-नायिका को आलिंगन के विभिन्न रूपों में चित्रित किया गया है। गर्भगृह में 7 घोड़ों के रथ पर सवार भगवान सूर्य की प्रतिमा विराजमान है। निकट ही हाथ में लेखनी लिए चित्रगुप्त बैठे हैं।


चित्रगुप्त मंदिर से कुछ आगे जगदंबी मंदिर है। मूलत: यह मंदिर विष्णु को समर्पित था, लेकिन मंदिर में कोई प्रतिमा न थी। छतरपुर के महाराजा ने जब इन मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया तब यहां जगदंबा की प्रतिमा स्थापित कर दी गई। इस मंदिर में अन्य देव प्रतिमाओं के साथ यम की प्रतिमा भी विद्यमान है। यहां भी दीवारों पर कुछ अच्छे मैथुन दृश्य देखने को मिलते हैं। प्रवेश द्वार पर चतुर्भुजी विष्णु गरूड़ पर आसीन नजर आते हैं। मंदिर के आलियों में सरस्वती एवं लक्ष्मी की प्रतिमाएं विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जगदंबी मंदिर के निकट ही महादेव मंदिर है। इस छोटे मंदिर का मूल भाग खंडित अवस्था में है तथा वेदी भी नष्ट हो चुकी है। प्रवेश द्वार पर एक मूर्ति में राजा चंद्रवर्मन को सिंह से लड़ते दर्शाया गया है। यह दृश्य चंदेलों का राजकीय चिह्न बन गया था।



इसके अलावा खजुराहो के प्राचीन गांव के निकट थोड़ी-थोड़ी दूरी पर स्थित पूर्वी मंदिर हैं। इनमें 4 जैन तथा 3 हिन्दू मंदिर हैं। पहला पिरामिड शैली में बना छोटा-सा ब्रह्मा मंदिर है। ब्रह्मा की प्रतिमा के साथ यहां भगवान विष्णु और शिव भी उपस्थित हैं। मंदिर में एक शिवलिंग भी है। ब्रह्मा मंदिर से करीब 300 मीटर की दूरी पर वामन मंदिर है। यह मंदिर 11वीं सदी के उत्तरा‌र्द्ध में बना माना जाता है। इस मंदिर की दीवारों पर प्रेमी युगलों के कुछ आलिंगन दृश्यों को छोड़ ज्यादातर एकल प्रतिमाएं हैं। यहीं शिव-विवाह का खूबसूरत अंकन भी देखने को मिलता है। वामन मंदिर से थोड़ा-सा आगे जाएं तो जवारी मंदिर है। भगवान विष्णु को समर्पित इस मंदिर में उनके बैकुंठ रूप में दर्शन होते हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों पर काफी संख्या में मूर्तियां हैं। इनमें अनेक मैथुन दृश्य भी हैं।


यहीं पर 4 जैन मंदिर स्थित हैं। इनमें से घंटाई मंदिर आज खंडहर अवस्था में है। एक मंडप के रूप में दिखने वाले इस मंदिर के स्तंभों पर घंटियों का सुंदर अलंकरण है। प्रवेश द्वार पर शासन देवी-देवताओं की मनोहारी प्रतिमाएं हैं जबकि गर्भगृह के द्वार पर शासन देवी चक्रेश्वरी की गरूड़ पर आरूढ़ प्रतिमा है। शेष तीनों जैन मंदिर कुछ दूर एक परिसर में स्थित हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है पा‌र्श्वनाथ मंदिर, जो राजा धंगदेव के काल में एक वैभवशाली नगर श्रेष्ठी द्वारा बनवाया गया था। जैन मंदिर की बाहरी दीवारों पर तीर्थंकर प्रतिमाएं बनी हैं। इनके साथ कुबेर, द्वारपाल, गजारूढ़ या अखारूढ़ जैन शासन देवताओं का सुंदर अंकन भी है। यहां मूर्तियों की पंक्तियों में गंधर्व, किन्नर, विद्याधर शासन देवी-देवता, यक्ष मिथुन व अप्सराएं शामिल हैं। इनमें आरसी से काजल लगाती नायिका तथा शिशु पर वात्सल्य छलकाती माता को देख सैलानी मुग्ध हो जाते हैं। मंदिर के तोरण में तीर्थंकर माता के 16 स्वप्नों का सुंदर चित्रण है और गर्भगृह में आदिनाथजी की प्रतिमा है।


पूर्वी मंदिर के बाद दक्षिणी मंदिरों में से एक खोकर नदी के तट पर स्थित दूल्हादेव मंदिर है। यह मंदिर शिव को समर्पित है। मंदिर के अंदर एक विशाल शिवलिंग पर 1,000 छोटे-छोटे शिवलिंग बने हैं। यह 12वीं शताब्दी में निर्मित चंदेल राजाओं की अंतिम धरोहर है। इसके बाद दूल्हादेव मंदिर से कुछ दूर चतुर्भुज मंदिर एक साधारण चबूतरे पर बना है। इस मंदिर की दीवारों पर बनी मूर्तियों में दिग्पाल, अष्टवसु, अप्सराएं और व्याल प्रमुखता से हैं। मंदिर के गर्भगृह में शिव की सौम्य प्रतिमा है। इसी मंदिर से कुछ दूरी पर एक विशालकाय मंदिर भूमि के नीचे दबा हुए है। उस स्थान को बीजा मंडल कहा जाता है।


लगभग सभी मंदिरों की दीवारों पर कहीं-कहीं एकल तो कहीं-कहीं सामूहिक मैथुनरत मूर्तियां वात्स्यायन के कामसूत्र में वर्णित और चित्रित अनेक आसनों का बोध कराती हैं। सामूहिक मैथुन के दृश्य तो दर्शकों के मन में एक अलग तरह का कौतूहल पैदा करते ही हैं, किंतु पशु मैथुन के गिने-चुने दृश्यों का रहस्य समझ से परे है। मूर्ति शिल्प की उत्कृष्टता यह भी दर्शाती है कि ये मैथुन मूर्तियां किसी तरह के पूर्वाग्रह या कुंठा से उपजी हुई रचनाएं नहीं हैं, लेकिन ऐसे दृश्यों का उत्तर न तो मंदिर की दीवारों पर और न किसी शिलालेख पर लिखा है।



  • पहला कारण : खजुराहो के मंदिरों के बनाने के अलग-अलग कारण बताए जाते हैं। एक मत है कि ये मूर्तियां यहां अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के सिद्धांत का हिस्सा हैं। इस विषय में यह भी कहा जाता है कि ये प्रतिमाएं भक्तों के संयम की परीक्षा का माध्यम हैं। मोक्ष के कई मार्गों में से एक है काम। सनातन हिन्दू धर्म ने जिंदगी को 4 पुरुषार्थों के हवाले किया है- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। एक-एक सीढ़ी और एक-एक सफलता और इन चारों पुरुषार्थों का समन्वय है खजुराहो के मंदिरों में।

  • दूसरा कारण : मंदिर निर्माण के कारणों में एक तर्क यह भी दिया जाता है कि उक्त काल में बौद्ध धर्म के प्रभाव के चलते गृहस्थ धर्म से विमुख होकर अधिकतर युवा ब्रह्मचर्य और सन्यास की ओर अग्रसर हो रहे थे। उन्हें पुन: गृहस्थ धर्म के प्रति आसक्त करने के लिए ही देशभर में इस तरह के मंदिर बनाए गए और उनके माध्यम से यह दर्शाया गया की गृहस्थ रहकर भी मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।

  • तीसरा कारण : कहा जाता है कि चंदेल राजाओं के काल में इस क्षेत्र में तांत्रिक समुदाय की वाममार्गी शाखा का वर्चस्व था, जो योग तथा भोग दोनों को मोक्ष का साधन मानते थे। ये मूर्तियां उनके क्रिया-कलापों की ही देन हैं। वात्स्यायन के कामसूत्र का आधार भी प्राचीन कामशास्त्र और तंत्रसूत्र है। शास्त्रों के अनुसार संभोग भी मोक्ष प्राप्त करने का एक साधन हो सकता है, लेकिन यह बात सिर्फ उन लोगों पर लागू होती है, जो सच में ही मुमुक्षु हैं।


बहरहाल, स्थापत्य की इस विधा के मूल में कारण और औचित्य चाहे कुछ भी रहा हो, यह तो निश्चित है कि उस काल की संस्कृति में ऐसी कला का भी महत्वपूर्ण स्थान था।



  • चौथा कारण : खजुराहो के मंदिर के निर्माण के संबंध में बुंदेलखंड में एक जनश्रुति प्रचलित है। कहते हैं कि एक बार राजपुरोहित हेमराज की पुत्री हेमवती संध्या की बेला में सरोवर में स्नान करने पहुंची। उस दौरान आकाश में विचरते चंद्रदेव ने जब स्नान करती अति सुंदर और नवयौवना से भीगी हुई हेमवती को देखा तो वे उस पर आसक्त हुए बगैर नहीं रह पाए।


उसी पल वे रूपसी हेमवती के समक्ष प्रकट हुए और उससे प्रणय निवेदन किया। कहते हैं कि उनके मधुर संयोग से जो पुत्र उत्पन्न हुआ उसने ही बड़े होकर चंदेल वंश की स्थापना की। समाज के भय से हेमवती ने उस बालक को वन में करणावती नदी के तट पर पाला और उसका नाम चंद्रवर्मन रखा।


बड़ा होकर चंद्रवर्मन एक प्रभावशाली राजा बना। एक बार उसकी माता हेमवती ने उसे स्वप्न में दर्शन देकर ऐसे मंदिरों के निर्माण के लिए प्रेरित किया, जो समाज को ऐसा संदेश दें जिससे समाज यह समझ सके कि जीवन के अन्य पहलुओं के समान कामेच्छा भी एक अनिवार्य अंग है और इस इच्छा को पूर्ण करने वाला इंसान कभी पापबोध से ग्रस्त न हो।


ऐसे मंदिरों के निर्माण के लिए चंद्रवर्मन ने खजुराहो को चुना। इसे अपनी राजधानी बनाकर उसने यहां 85 वेदियों का एक विशाल यज्ञ किया। बाद में इन्हीं वेदियों के स्थान पर 85 मंदिर बनवाए गए थे जिनका निर्माण चंदेल वंश के आगे के राजाओं द्वारा जारी रखा गया। यद्यपि 85 में से आज यहां केवल 22 मंदिर शेष हैं। 14वीं शताब्दी में चंदेलों के खजुराहो से प्रस्थान के साथ ही सृजन का वह दौर खत्म हो गया।


खजुराहो में देवी-देवताओं के मंदिर हैंलेकिन इन्हें सबसे ज्यादा जाना जाता है तो कामसूत्र पर आधारित विभिन्न मुद्राओं में मैथुनरत मूर्तियों के लिए। हालांकि खजुराहो के मंदिर अकेले ऐसे मंदिर नहीं। भारत में ऐसे और भी मंदिर हैं जिनमें कामसूत्र से प्रेरित रतिरत मूर्तियां हैं जैसे छत्तीसगढ़ में भोरम देव का मंदिर, हिमाचल में चंबा मंदिर, उत्तरांचल के अल्मोड़ा में नंदा देवी मंदिर, उड़ीसा में कोणर्क और लिंग राज का मंदिर, राजस्थान के रणकपुर में जैन मंदिर, बाड़मेर जिले में स्थित किराडू के मंदिर और कर्नाटक के हम्पी में मनुमंत का मंदिर।


छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से सवा सौ किलोमीटर दूर एक मंदिर ऐसा है जो खजुराहो और सूर्य मंदिर कोणार्क के समीप दिखाई देता है। इस मंदिर में कोई एक दो नहीं पूरी 54 मूर्तियां हैं जो मैथुन की अवस्था में दिखाई देती हैं। प्रचार—प्रसार और सुविधाओं के अभाव में यह मंदिर वैसी ख्याति हासिल नहीं कर पाया।


छत्तीसगढ़ में कलचुरियों, पाण्डूवंशियों एवं नागवंशियों ने अपने अपने कार्यकाल में भव्य मंदिरों का निर्माण कराया था। उनके मंदिरों के मिथुन शिल्प के सौंदर्य और कला का अद्भुत दर्शन होता है। छत्तीसगढ़ के आरंग, सिरपुर, बिलासपुर, बारसूर, महेशपुर, नारायणपुर, छपरी, राजिम, जांजगीर आदि अनेक स्थानों पर आज भी वे मंदिर मौजूद हैं।



  • मोक्ष का मार्ग : कोणार्क, पुरी, खजुराहो- इन मंदिरों की दीवारों पर मैथुन-मूर्तियां हैं। इन मूर्तियों का संदेश है कि संसार मैथुनमय है। संसार में मन्मथ भाव की प्रधानता है। यह द्वैत में अद्वैत का आनंद देती है। हिन्दू धर्म में काम को कामदेव और कामेश्वर माना गया है।


धर्म के अनुसार काम करते हुए अर्थोपार्जन और कामोपभोग के बाद मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होने की अवस्था आती है। प्राचीन हिन्दू परंपरा के वाहक 'रामायण' और 'महाभारत' में भी काम के प्रति अनेक प्रकार के रुझानों के दर्शन होते हैं। अपनी मूल प्रकृति में हिन्दू धर्म और परंपरा वर्जनावादी नहीं है।


हिन्दू जीवन-दर्शन में काम की भूमिका एवं उसके महत्व को सहज भाव से स्वीकारा गया है। उसे न तो गोपनीय रखा गया और न ही वर्जित करार दिया गया। इतनी महत्वपूर्ण बात, जिससे सृष्टि जन्मती और मर जाती है, से कैसे बचा जा सकता है? इसीलिए धर्म और अर्थ के बाद काम और मोक्ष का महत्व है।


वात्स्यायन के कामसूत्र का आधार भी प्राचीन कामशास्त्र और तंत्रसूत्र है। शास्त्रों के अनुसार संभोग भी मोक्ष प्राप्त करने का एक साधन हो सकता है, लेकिन यह बात सिर्फ उन लोगों पर लागू होती है, जो सच में ही मुमुक्षु हैं।


प्रश्नोपनिषद कहता है कि काम के बिना जीवन नहीं है। कामतृप्ति मनुष्य की स्वाभाविक कर्म पशुवृत्ति है। बार्हस्पत्य सूत्र में लिखा है- 'काम एवैकः पुरुषार्थः'। मनुष्य के मन में कामवृत्ति है और कामतृप्ति के उपाय ढूंढने की उसकी प्रवृत्ति है। मनुस्मृति साफ-साफ कहती है- 'न मांस भक्षणे दोषो, न मद्ये न च मैथुने'। मतलब यह है कि मांस, मदिरा और मैथुन में कोई दोष नहीं है। यह मनुष्य की प्रवृत्ति है। 'प्रवृत्ति ऐशा भूतानाम्'। हमारी परंपरा कहती है कि मनुष्य अपनी स्वाभाविक वृत्ति का पालन करते हुए उससे ऊपर उठ जाता है। लेकिन वे लोग इसके अधिकारी नहीं हैं जिनमें संकल्प और संयम नहीं है जिन्होंने यम और नियम को नहीं समझा है और जिन्होंने योग के चित्त वृत्ति निरोध: को नहीं जाना है।


ओशो अपने प्रवचन 'संभोग से समाधि की ओर' में कहते हैं‍ कि तंत्र ने सेक्‍स को स्प्रिचुअल बनाने का दुनिया में सबसे पहला प्रयास किया था। खजुराहो में खड़े मंदिर, पुरी और कोणार्क के मंदिर सबूत हैं। कभी आपने खजुराहो की मूर्तियां देखी हों तो आपको दो बातें अद्भुत अनुभव होंगी।


पहली बात तो यह है कि नग्‍न मैथुन की प्रतिमाओं को देखकर भी आपको ऐसा नहीं लगेगा कि उनमें जरा भी कुछ गंदा है, जरा भी कुछ अग्‍ली है। नग्‍न मैथुन की प्रतिमाओं को देखकर कहीं भी ऐसा नहीं लगेगा कि कुछ कुरूप है; कुछ गंदा है, कुछ बुरा है बल्‍कि मैथुन की प्रतिमाओं को देखकर एक शांति, एक पवित्रता का अनुभव होगा, जो बड़ी हैरानी की बात है। वे प्रतिमाएं आध्‍यात्‍मिक सेक्‍स को जिन लोगों ने अनुभव किया था, उन शिल्‍पियों से निर्मित करवाई गई हैं।


खजुराहो एक पर्यटक स्थल होने के साथ-साथ मंदिरों के गांव के रूप में भी विख्यात है। यहां के मंदिर लगभग 1,000 सालों से भी अधिक पुराने हैं जिन्हें मध्यभारत के चंदेल राजपूत राजाओं ने बनवाया था। चंदेल राजाओं ने 9वीं से 14वीं शताब्दी के दौरान यहां राज किया था। वर्तमान में प्राचीन 85 मंदिरों में से मात्र 22 मंदिर ही सुरक्षित बचे हैं। शेष मंदिर आज खंडहर के रूप में तब्दील होकर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं। खजुराहो के प्रसिद्ध मंदिर पूर्वी, पश्चिमी व दक्षिणी आदि 3 भागों में विभाजित हैं।



  • पश्चिमी भाग के मंदिर: खजुराहो में पश्चिमी भाग के मंदिरों में प्रमुख मंदिर कंदारिया महादेव मंदिर, चौंसठ योगिनी मंदिर (ग्रेनाइट से बना सुंदर मंदिर), काली मां का मंदिर, देवी जगदंबा मंदिर आदि प्रमुख हैं। इन मंदिरों के उत्तर में चित्रगुप्त मंदिर (सूर्य देवता का मंदिर), विश्वनाथन मंदिर (तीन मुखी ब्रह्मा की प्रतिमा तथा 6 फीट ऊंची नंदी प्रतिमा), मटंगेश्वर मंदिर (8 फीट ऊंचा शिवलिंग) आदि स्थित हैं।


मंदिरों में स्थित प्रतिमाओं की जर्जर स्थिति को देखते हुए इनमें से कई मंदिरों में पूजा करना प्रतिबंधित है। इनमें से केवल मटंगेश्वर मंदिर में ही अब तक पूजा करना जारी है।




  • पूर्वी भाग के मंदिर: इस भाग में हिन्दू व जैन दोनों के देवी-देवताओं की दुर्लभ प्रतिमाएं स्थित हैं। मंदिरों का यह भाग खजुराहो गांव के समीप स्थित है। पूर्वी भाग का सबसे बड़ा मंदिर जैन तीर्थंकर 'भगवान पार्श्वनाथजी का मंदिर' है। इसके बाद दूसरा जैन मंदिर 'घाटी मंदिर' है। इस मंदिर के उत्तर में 'आदिनाथ मंदिर' है। मंदिरों के इस समूह में ब्रह्मा, वामन आदि हिन्दू देवताओं के मंदिर भी शोभायमान हैं।


 



  • दक्षिणी भाग के मंदिर: मंदिरों का यह समूह खजुराहो गांव से लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इनमें सबसे अच्छा मंदिर 'चित्रभुज मंदिर' है। इस भाग के मंदिरों से कुछ दूरी पर सड़क के उस पार जैन मंदिरों का एक समूह है जिनमें कई जैन तीर्थंकरों के सुंदर व आकर्षक मंदिर हैं।


 



  • खजुराहो के आसपास: भारतीय कला व संस्कृति के संगम स्थल खजुराहो के आसपास भी कई ऐसे स्थान हैं, जो आपकी खजुराहो यात्रा को पूर्णता प्रदान करते हैं। इनमें खजुराहो से 25 किमी दूर स्थित राजगढ़ पैलेस (हैरिटेज होटल), रंगून झील (पिकनिक स्पॉट), पन्ना राष्ट्रीय उद्यान (34 किमी दूर) आदि रमणीय स्थल हैं।




  • उक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि-


खजुराहो मंदिर का निर्माण कुंडलीदार जटिल रचना के आकार में किया गया है। खजुराहो मंदिर उत्तर भारतीय शिखर मंदिर के आकार में जुड़े हुए है। खजुराहो मंदिर अपनी आकर्षित कलाकृति और इतिहासिक मूर्तियों के लिये प्रसिद्ध है। खजुराहो मंदिर के अन्दर के कमरे एक दुसरे से जुड़े हुए है। कमरों में एक तरह से कलाकृति की गयी है की कमरों की खिडकियों से सूरज की रौशनी पुरे मंदिर में फैले। और लोग भी मंदिर को देखते ही आकर्षित होते है। खजुराहो नाम हिंदी शब्द 'खजूर' से आया है जिसका अर्थ “खजूर फल” है। इस मंदिर का निर्माण 950 और 1050 AD में चंदेल साम्राज्य के समय में किया गया था। पहले प्राचीन काल में खजुराहो समूह में कुल 85 मंदिर थे लेकिन प्राकृतिक आपदाओ के कारण बहोत से मंदिर अब नष्ट हो चुके है। अब खजुराहो में केवल 22 हिन्दू मंदिर ही बचे हुए है। 20 वी शताब्दी में ही खजुराहो मंदिरों को पुनःखोजा गया था। यह मानना गलत होगा की खजुराहो मंदिर केवल कामुक कलाकृतियों के लिये ही प्रसिद्ध है। बल्कि ये कामुक कलाकृतिया प्राचीन भारत की परंपराओ और कलाओ का प्रतिनिधित्व करती है। खजुराहो मंदिर में मध्यकालीन महिलाओ के जीवन को पारंपरिक तरीके से चित्रित किया हुआ है। हजारो श्रद्धालु और यात्री खजुराहो मंदिर देखने आते है। खजुराहो मंदिर मध्य भारत के ह्रदय मध्य प्रदेश के दायी तरफ स्थित है।


 


Popular posts from this blog

इनामी अपराधी को मार गिराने वाले जांबाज अफसर को मिला वीरता पदक.....

झांसी की  प्रगति यादव ने जिले का  नाम रोशन किया...

भारत-ब्राजील ने 2022 तक 15 बिलियन अमरीकी डालर का व्यापार लक्ष्य रखा।